मंगलवार, 27 मई 2008

एक कविता

नील गगन तले अमराई की छांह ,

मांदर की थाप पर थिरकते पाँव ,

बस्तर की वादियों मे ,है यह गाँव ,

सल्फी के पेड़ तले ,है ये कैसी अनोखी छांह ,

इंद्रावती की धाराये बदल रही दिशाये ,

सल्फी के पेड़ अब सुख चले है,

मांदर की थाप अब धीमे हो चले है

रक्तिम नदियों का ,क्या जल पी सकोगे

छीने हुए भाग्य क्या वापस दे सकोगे

कब से खड़े है उस पार ,

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