शनिवार, 16 जुलाई 2011

आधुनिक प्रजातंत्र ‘पाप के मटका’ लेखक- श्री मन्नू लाल ठाकुर




13 नवम्बर 2008
सन् पचास के आइस साल, बनिस सविधान भारत के  ।
नागरिक समानता स्वतंत्रता, जनता राज चलाही भारत के  ।।
सामाजिक नियाव के हक मिलही, छोटे बड़ंे के भेद होही खतम  ।
विचार अभि ब्यक्ति सबो करही, राजा नहीं, जनता बनही परम  ।।
प्रशासन होही जनता के सेवक, जनता ला मिलही मान सनमान  ।
बहत हे उलटी गंगा भारत मा, सेवक करे मालिक के हिन भाव  ।।
इंहा जनतंत्र के धज्जियां उड़त हे, गुर्रावय बिलइया गोसइयंा ला  ।
थोरको डर नइये सेवक ला, गोहराय अपन पोसइया ला  ।।
नौकर साही के राज चलत हे, होथे बउपरा जनता के नाम  ।
मालिक हा तो भुइयां मा बईठे, सेवक ला करे झुक-झुक सलाम  ।।
देश भक्ति के नारा खुंटी मा टान्गे, जनसेवा ला कोट मा लटकाय  ।
देख-देख गांधी जी सरमावय, साहब कुरसी मा कुला मटकाय  ।।
करिया दिवाल मा चुना पोतय, अपन मुख मा कोयला रचाय  ।
कुकरी चोर ला सातिर बतावे, देश द्रोही ला गला लिपटाय  ।।
हाथ मा रचावय चुड़ी रंग ला, बजरंग बली मा चढ़े नरिहर  ।
हाथ ला अपन द्यस द्यस के धोवे, कहां ले होही मन हा फरिहर  ।।
मंदीर आघु मा गोल्लर भूकरे, हाट बाजार मा खुरखेद मचाय  ।
दिन अउ रात मेहनत करथय, किसान ला रहिथे हाय-हाय  ।।
देश के धरती सोना उगलय, ये सब काकर भोभस भराय  ।
दिखे मइंद शहर मा रिंगी चिगी, बहीरी हा खुब बजबजावत हे  ।।
छलकावत हे भरे करसा ला, रीता हड़िया ला आधावत हे  ।
गंाधी नेहरु के सपना, सपना होगे मेछरावे करिया बेपारी मन  ।।
इमान धरम के पालन करथे, हाथ मलय वो करमचारी मन  ।
देखत सुनत कान हा पाकगे, खुब हावे इंकर लटका झटका  ।।
सनातन ले चले आवत हे, फूटही एक दिन पाप के मटका  ।

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