रविवार, 7 दिसंबर 2008

वक्त की गुजारिश है इन लम्हों को गुजर जाने दो

आंतक की दुनिया से
मानवता की दुनिया
बड़ी है,
बहुत बड़ी
सडी हुई व्यवस्था
पागल हुए लोग
मशीन सी चलती जिन्दगी
सुबह होते ही
शाम का इन्तजार
धुल धुएं कीचड़
बजबजाती हुई नालिया
चीख पुकार
या है
कोई ओउर आवाज
उजड़ते घोसले
बिना पंख के फुदकती हुई चिड़िया
खून से लथ पथ
सडको पर गिरे लोग
नीद से जागते हुए लोग
टटोलते हुए हाथ
जम्हूरे का तमाशा
सडको पर भीड़
झांकती हुई आँखे
आसमान को चीरता हुआ काला धुँआ
अब ओउर नही
खून,....

1 टिप्पणी:

mahendra kumar ने कहा…

Sorry for writing in English.
But the poem is good I liked it.
Mahendra Kumar